शनिवार, 28 सितंबर 2013


चीख रही पुरजोर‌ गिलहरी

रखे हिमालय को कंधे पर,
चली सूर्य की ओर गिलहरी।
कहां खतम है आसमान का,
ढूंढ़ रही है छोर गिलहरी।

अंबर से वह देख रही है,
धरती की ओझल हरियाली।
इसी बात पर जोर-जोर से,
मचा रही है शोर गिलहरी।

श्वांस और उच्छवांस कठिन है,
धरती पर अब जीवन भारी।
यही सोचकर आज हो रही,
है उदास घनघोर गिलहरी।

कण-कण दूषित आसमान का,
मिट्टी की रग-रग जहरीली,
यही बताने आज रही है,
सबको ही झखझोर गिलहरी।

आँखें आंसू से परिपूरित,
दशा देखकर इस धरणी की|
अब तो जागो,अब तो चेतो,
चीख रही पुरजोर‌ गिलहरी।

         
                      

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