मेरी बाल कविता
कलयुग के मुर्गे
रोज चार पर मुर्गों की अब,
नींद नहीं खुल पाती बापू|
इस कारण से ही तो अब वे,
गाते नहीं प्रभाती बापू|
कुछ सालों पहिले तो मुर्गे,
सुबह बाँग हर दिन देते थे|
उठो उठो हो गया सबेरा,
संदेशा सबको देते थे|
किंतु बात अब यह मुर्गों को,
बिल्कुल नहीं सुहाती बापू|
इस कारण से ही तो अब वे,
गाते नहीं प्रभाती बापू|
हो सकता है अब ये मुर्गे,
देर रात तक जाग रहे हों,
कम्पूटर टी वी के पीछे,
पागल होकर भाग रहे हों|
लगता है कि मुर्गी गाकर,
फिल्मी गीत रिझाती बापू|
इस कारण से ही तो अब वे,
गाते नहीं प्रभाती बापू|
नई सभ्यता पश्चिमवाली,
सबके सिर चढ़ बोल रही है|
सोओ देर से उठो देर से,
बात लहू में घोल रही है|
मजे मजे की यही जिंदगी,
अब मुर्गों को भाती बापू|
इस कारण से ही तो अब वे,
गाते नहीं प्रभाती बापू|
पर पश्चिम की यही नकल तो,
हमको लगती है दुखदाई|
, |भूले अपने संस्कार क्यों,
हमको अक्ल जरा न आई|
यही बात कोयल कौये से,
हर दिन सुबह बताती बापू|
इस कारण से ही तो अब वे,
गाते नहीं प्रभाती बापू|
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