पौधे पालें
खुशी खुशी से कहीं लगालें,
चलो चलो हम पौधे पालें|
आज राम का जन्म दिवस है,
चलो मना लें धूम धाम से|
लाकर चार लगा दें पौधे ,
जन्म दिवस के इसी नाम से|
चलो खाद कुछ पानी डालें|
पप्पू हुआ पास कक्षा में,
सबसे अधिक अंक आये हैं|
इसी खुशी में आम नीम के,
दादाजी पौधे लाये हैं|
पप्पू से रोपण करवालें
बाबूजी के पुण्य दिवस पर,
नमन उन्हें झुककर करना है|
लाकर पौधे पाँच कहीं से,
धरती को अर्पण करना है|
उनकी ढेर दुआयें पालें|
आज हमारे मुन्नाजी का,
चयन हुआ सरकारी पद पर|
चलो लगा दो कुछ तो पौधे,
आंगन में या घर की छत पर|
आओ पर्यावरण बचा लें|
किसी तरह से किसी बहाने,
पौधे हमें लगाना ही हैं|
देकर पानी खाद प्रेम का,
दिन दिन उन्हें बढ़ा ही है|
जीवन का यह लक्ष्य बनालें|
शनिवार, 28 सितंबर 2013
चीख रही पुरजोर गिलहरी
रखे हिमालय को कंधे पर,
चली सूर्य की ओर गिलहरी।
कहां खतम है आसमान का,
ढूंढ़ रही है छोर गिलहरी।
अंबर से वह देख रही है,
धरती की ओझल हरियाली।
इसी बात पर जोर-जोर से,
मचा रही है शोर गिलहरी।
श्वांस और उच्छवांस कठिन है,
धरती पर अब जीवन भारी।
यही सोचकर आज हो रही,
है उदास घनघोर गिलहरी।
कण-कण दूषित आसमान का,
मिट्टी की रग-रग जहरीली,
यही बताने आज रही है,
सबको ही झखझोर गिलहरी।
आँखें आंसू से परिपूरित,
दशा देखकर इस धरणी की|
अब तो जागो,अब तो चेतो,
चीख रही पुरजोर गिलहरी।
रखे हिमालय को कंधे पर,
चली सूर्य की ओर गिलहरी।
कहां खतम है आसमान का,
ढूंढ़ रही है छोर गिलहरी।
अंबर से वह देख रही है,
धरती की ओझल हरियाली।
इसी बात पर जोर-जोर से,
मचा रही है शोर गिलहरी।
श्वांस और उच्छवांस कठिन है,
धरती पर अब जीवन भारी।
यही सोचकर आज हो रही,
है उदास घनघोर गिलहरी।
कण-कण दूषित आसमान का,
मिट्टी की रग-रग जहरीली,
यही बताने आज रही है,
सबको ही झखझोर गिलहरी।
आँखें आंसू से परिपूरित,
दशा देखकर इस धरणी की|
अब तो जागो,अब तो चेतो,
चीख रही पुरजोर गिलहरी।
झरबेरी के बेर कहां हैं
बालवीर या पोगो ही मैं,
देखूं गुड़िया रोई|
चंदा मामा तुम्हें आजकल,
नहीं पूछता कोई|
आज देश के बच्चों को तो,
छोटा भीम सुहाता|
उल्टा चश्मा तारक मेहता,
का ही सबको भाता|
टाम और जेरी की जैसे,
धूम मची घर घर में|
बाल गणेशा उड़कर आते,
अब बच्चों के उर में|
कार्टून के स्वप्नों में ही,,
बाल मंडली खोई|
टू वन जा टू का टेबिल ही,
बच्चे घर घर पढ़ते|
अद्धा पौआ पौन सवैया,
बैठे कहीं सिकुड़ते|
क्या होते उन्तीस सतासी,
नहीं जानते बच्चे|
हिंदी से जो करते नफरत,
समझे जाते अच्छे|
इंग्लिश के आंचल में दुबकी,
हिंदी छुप छुप रोई|
आम नीम के पेड़ों पर अब,
कौन झूलता झूला|
अब्बक दब्बक दांयदीन का,
खेल जमाना भूला|
भूले ,ताल ,तलैया, सर से,
कमल तोड़कर लाना|
भूले, खेल खेल में इमली,
बरगद पर चढ़ जाना|
झरबेरी के बेर कहां हैं,
ना ही दिखे मकोई|
परी आई है
किसी तरह से नील गगन में,
जाकर अम्मा तारे लादो|
मेरे बालों के जूड़े में,
एक नहीं दो चार सजा दो|
कल जब मैं शाला जाऊंगी,
मैं लाखों में एक दिखूंगी|
नील गगन से आई हूं मैं,
सब मित्रों से यही कहूंगी|
शाला के शिक्षक बच्चे सब,
हाय हलो करने आयेंगे|
परी आ गई परी आ गई,
जोर जोर से चिल्लायेंगे|
मैं खुशियों के आसमान में,
सपने लेकर उड़ जाऊंगी,
मिला समय तो चंदा मामा ,
से भी दो पल मिल आऊंगी|
किसी तरह से नील गगन में,
जाकर अम्मा तारे लादो|
मेरे बालों के जूड़े में,
एक नहीं दो चार सजा दो|
कल जब मैं शाला जाऊंगी,
मैं लाखों में एक दिखूंगी|
नील गगन से आई हूं मैं,
सब मित्रों से यही कहूंगी|
शाला के शिक्षक बच्चे सब,
हाय हलो करने आयेंगे|
परी आ गई परी आ गई,
जोर जोर से चिल्लायेंगे|
मैं खुशियों के आसमान में,
सपने लेकर उड़ जाऊंगी,
मिला समय तो चंदा मामा ,
से भी दो पल मिल आऊंगी|
सोमवार, 23 सितंबर 2013
अम्मा
सुबह सुबह से गरम पकोड़े,
आज बनाये अम्मा ने|
थाली में रख बड़े प्रेम से,
मुझे खिलाये अम्मा ने|
खट्टी मीठी चटनी भी थी,
पीसी थी सिलबट्टे पर|
किशमिश वाले गुड़ के लड्डू,
मुझे चखाये अम्मा ने|
बहुत दिनों से देशी कपड़े,
पहनूं मेरी इच्छा थी|
कुरते और पजामें सूती,
मुझे सिलाये अम्मा ने|
कभी कभी जब मैंनेँ ठानी,
होटल जाकर खाने की|
डांट डांटकर हँसकर मेरे,
कान हिलाये अम्मा ने|
चकरी भौंरे और खिलोने,
लेने की हठ कर बैठा||
बड़े चाव से खुशी खुशी से,
मुझे दिलाये अम्मा ने|
मेरी इच्छा की वीणा को,
बनकर सरगम, संगत दी|
मेरे सुर में अपने सुर हर,
बार मिलाये अम्मा ने
सुबह सुबह से गरम पकोड़े,
आज बनाये अम्मा ने|
थाली में रख बड़े प्रेम से,
मुझे खिलाये अम्मा ने|
खट्टी मीठी चटनी भी थी,
पीसी थी सिलबट्टे पर|
किशमिश वाले गुड़ के लड्डू,
मुझे चखाये अम्मा ने|
बहुत दिनों से देशी कपड़े,
पहनूं मेरी इच्छा थी|
कुरते और पजामें सूती,
मुझे सिलाये अम्मा ने|
कभी कभी जब मैंनेँ ठानी,
होटल जाकर खाने की|
डांट डांटकर हँसकर मेरे,
कान हिलाये अम्मा ने|
चकरी भौंरे और खिलोने,
लेने की हठ कर बैठा||
बड़े चाव से खुशी खुशी से,
मुझे दिलाये अम्मा ने|
मेरी इच्छा की वीणा को,
बनकर सरगम, संगत दी|
मेरे सुर में अपने सुर हर,
बार मिलाये अम्मा ने
शेरू भाई थाने में
शेरसिंह जी नियुक्त हो गये,
वाहन चालक के पद पर।
तेज तेज’ बस ‘लगे चलाने,
दिल्ली कलकत्ता पथ पर।
तीन बार सिगनल को तोड़ा,
चार हाथियों को रौंधा।
डर के मारे बीच सड़क पर,
भालू गिरा, हुआ औंधा।
सीटी बजा बजा चूहे ने
किसी तरह ‘बस’ रुकवाई।
उसी समय पर दौड़े दौड़े,
आ पहुंचे भालू भाई।
दोनों ने जाकर थाने में,
रपट शेर की लिखवाई।
जब से अब तक बंद पड़े हैं,
थाने में शेरू भाई।
बड़े बड़े लोगों की भी अब,
नहीं चलेगी मनमानी|
जेल उन्हें भी जाना होगा,
जो हैं शातिर अभिमानी|
शेरसिंह जी नियुक्त हो गये,
वाहन चालक के पद पर।
तेज तेज’ बस ‘लगे चलाने,
दिल्ली कलकत्ता पथ पर।
तीन बार सिगनल को तोड़ा,
चार हाथियों को रौंधा।
डर के मारे बीच सड़क पर,
भालू गिरा, हुआ औंधा।
सीटी बजा बजा चूहे ने
किसी तरह ‘बस’ रुकवाई।
उसी समय पर दौड़े दौड़े,
आ पहुंचे भालू भाई।
दोनों ने जाकर थाने में,
रपट शेर की लिखवाई।
जब से अब तक बंद पड़े हैं,
थाने में शेरू भाई।
बड़े बड़े लोगों की भी अब,
नहीं चलेगी मनमानी|
जेल उन्हें भी जाना होगा,
जो हैं शातिर अभिमानी|
बेईमानी का फल
मिली नौकरी चूहेजी को,
बस के परिचालक की|
लगे समझने बस को जैसे,
खेती हो वह घर की|
बस में बैठे सभी मुसाफिर,
उनसे टिकिट मंगाते|
पैसे तो वे सबसे लेते,
पर ना टिकिट बनाते|
पूछा लोगों ने चूहेजी,
कैसी बेईमानी|
सरकारी पैसे से करते ,
क्यों ये छेड़ाखानी|
बोला..टिकिट बनाता हूं वह,
तुम तक पहुंच न पाते|
कागज़ खाने की आदत से,
टिकिट हमीं खा जाते|
उत्तर सुन ,लोगों ने पूछा,
नोट क्यों नहीं खाये|
लिये टिकिट के रुपये हैं तो,
उनको कहां छुपाये|
बगलें लगा झांकने चूहा,
छोड़ छाड़ बस भागा|
बिल्ली पीछे दौड़ पड़ी तो,
मारा गया अभागा|
मिली नौकरी चूहेजी को,
बस के परिचालक की|
लगे समझने बस को जैसे,
खेती हो वह घर की|
बस में बैठे सभी मुसाफिर,
उनसे टिकिट मंगाते|
पैसे तो वे सबसे लेते,
पर ना टिकिट बनाते|
पूछा लोगों ने चूहेजी,
कैसी बेईमानी|
सरकारी पैसे से करते ,
क्यों ये छेड़ाखानी|
बोला..टिकिट बनाता हूं वह,
तुम तक पहुंच न पाते|
कागज़ खाने की आदत से,
टिकिट हमीं खा जाते|
उत्तर सुन ,लोगों ने पूछा,
नोट क्यों नहीं खाये|
लिये टिकिट के रुपये हैं तो,
उनको कहां छुपाये|
बगलें लगा झांकने चूहा,
छोड़ छाड़ बस भागा|
बिल्ली पीछे दौड़ पड़ी तो,
मारा गया अभागा|
छोटे लोग
छोटे लोग
हाथी खड़ा नदी के तट पर,
जाना था उस पार।
किश्ती वाला नहीं हुआ ले,
जाने को तैयार।
इस पर तभी एक मेंढ़क ने,
दरिया दिली दिखाई।
बोला चिंतित क्यों होते हो,
प्यारे हाथी भाई।
बिठा पीठ पर तुमको अपनी,
नदिया पार कराऊं।
कठिन समय में दया करूं मैं,
मेंढ़क धर्म निभाऊं।
संबोधन ने मेंढ़कजी के,
हाथी को उकसाया।
पैदल चलकर पाँच मिनिट में,
नदी पार कर आया।
छोटे-छोटे लोग बड़ों को,
भी हिम्मत दे जाते।
और कठिन से कठिन काम भी,
चटपट हल हो जाते।
हाथी खड़ा नदी के तट पर,
जाना था उस पार।
किश्ती वाला नहीं हुआ ले,
जाने को तैयार।
इस पर तभी एक मेंढ़क ने,
दरिया दिली दिखाई।
बोला चिंतित क्यों होते हो,
प्यारे हाथी भाई।
बिठा पीठ पर तुमको अपनी,
नदिया पार कराऊं।
कठिन समय में दया करूं मैं,
मेंढ़क धर्म निभाऊं।
संबोधन ने मेंढ़कजी के,
हाथी को उकसाया।
पैदल चलकर पाँच मिनिट में,
नदी पार कर आया।
छोटे-छोटे लोग बड़ों को,
भी हिम्मत दे जाते।
और कठिन से कठिन काम भी,
चटपट हल हो जाते।
भालू की हजामत
बाल हुए जब बड़े-बड़े, बूढ़े भालू चाचा के।
गुस्से के मारे चाची, उनको बोलीं चिल्ला के।।
बाल कटाने ऊंट चचा के, घर क्यों ना जाते हो?
बागड़ बिल्ला बने घूमते-फिरते इतराते हो।।
भालू बोला ऊंट चचा ने, भाव कर दिए दूने।
साठ रुपए देने में बेगम, जाते छूट पसीने।।
इतनी ज्यादा मंहगाई है, रुपए कहां से लाऊं?
सोचा है इससे जीवन भर, कभी न बाल कटाऊं।।
नहीं हजामत भालूजी ने , अब तक है बनवाई।
बड़े-बड़े बालों में ही अब, रहते भालू भाई।।
बाल हुए जब बड़े-बड़े, बूढ़े भालू चाचा के।
गुस्से के मारे चाची, उनको बोलीं चिल्ला के।।
बाल कटाने ऊंट चचा के, घर क्यों ना जाते हो?
बागड़ बिल्ला बने घूमते-फिरते इतराते हो।।
भालू बोला ऊंट चचा ने, भाव कर दिए दूने।
साठ रुपए देने में बेगम, जाते छूट पसीने।।
इतनी ज्यादा मंहगाई है, रुपए कहां से लाऊं?
सोचा है इससे जीवन भर, कभी न बाल कटाऊं।।
नहीं हजामत भालूजी ने , अब तक है बनवाई।
बड़े-बड़े बालों में ही अब, रहते भालू भाई।।
प्रजातंत्र का राजा
प्रजातंत्र का राजा
एक कहानी बड़ी पुरानी, कहती रहती नानी।
शेर और बकरी पीते थे, एक घाट पर पानी।
कभी शेर ने बकरी को, न घूरा न गुर्राया।
बकरी ने जब भी जी चाहा, उससे हाथ मिलाया।
शेर भाई बकरी दीदी के, जब तब घर हो आते।
बकरी के बच्चे मामा को, गुड़ की चाय पिलाते।
बकरी भी भाई के घर पर, बड़ी शान से जाती।
कभी मुगौड़े भजिए लड्डू, रसगुल्ले खा आती।
किंतु अचानक ही जंगल में, प्रजातंत्र घुस आया।
और प्रजा को मिली शक्तियों, से अवगत करवाया।
ऊंच-नीच होता क्या होता, छोटा और बड़ा क्या।
जाति धर्म वर्गों में होता, कलह और झगड़ा क्या।
निर्धन और धनी लोगों में, बड़ा फासला होता।
एक रहा करता महलों में, एक सड़क पर सोता।
शेर सिंह को जैसे ही यह, बात समझ में आई।
तोड़ी बकरी की गर्दन फिर, बड़े स्वाद से खाई।
अब जो भी पशु मिलता उसको, उसे मार खा जाता।
जंगल में अब प्रजातंत्र का, वह राजा कहलाता।
प्रजातंत्र का मतलब भी वह ,दुनिया को समझाता।
इसी तंत्र में जिसका जो भी , मन हो वह कर पाता।।
एक कहानी बड़ी पुरानी, कहती रहती नानी।
शेर और बकरी पीते थे, एक घाट पर पानी।
कभी शेर ने बकरी को, न घूरा न गुर्राया।
बकरी ने जब भी जी चाहा, उससे हाथ मिलाया।
शेर भाई बकरी दीदी के, जब तब घर हो आते।
बकरी के बच्चे मामा को, गुड़ की चाय पिलाते।
बकरी भी भाई के घर पर, बड़ी शान से जाती।
कभी मुगौड़े भजिए लड्डू, रसगुल्ले खा आती।
किंतु अचानक ही जंगल में, प्रजातंत्र घुस आया।
और प्रजा को मिली शक्तियों, से अवगत करवाया।
ऊंच-नीच होता क्या होता, छोटा और बड़ा क्या।
जाति धर्म वर्गों में होता, कलह और झगड़ा क्या।
निर्धन और धनी लोगों में, बड़ा फासला होता।
एक रहा करता महलों में, एक सड़क पर सोता।
शेर सिंह को जैसे ही यह, बात समझ में आई।
तोड़ी बकरी की गर्दन फिर, बड़े स्वाद से खाई।
अब जो भी पशु मिलता उसको, उसे मार खा जाता।
जंगल में अब प्रजातंत्र का, वह राजा कहलाता।
प्रजातंत्र का मतलब भी वह ,दुनिया को समझाता।
इसी तंत्र में जिसका जो भी , मन हो वह कर पाता।।
प्रजातंत्र का राजा
प्रजातंत्र का राजा
एक कहानी बड़ी पुरानी, कहती रहती नानी।
शेर और बकरी पीते थे, एक घाट पर पानी।
कभी शेर ने बकरी को, न घूरा न गुर्राया।
बकरी ने जब भी जी चाहा, उससे हाथ मिलाया।
शेर भाई बकरी दीदी के, जब तब घर हो आते।
बकरी के बच्चे मामा को, गुड़ की चाय पिलाते।
बकरी भी भाई के घर पर, बड़ी शान से जाती।
कभी मुगौड़े भजिए लड्डू, रसगुल्ले खा आती।
किंतु अचानक ही जंगल में, प्रजातंत्र घुस आया।
और प्रजा को मिली शक्तियों, से अवगत करवाया।
ऊंच-नीच होता क्या होता, छोटा और बड़ा क्या।
जाति धर्म वर्गों में होता, कलह और झगड़ा क्या।
निर्धन और धनी लोगों में, बड़ा फासला होता।
एक रहा करता महलों में, एक सड़क पर सोता।
शेर सिंह को जैसे ही यह, बात समझ में आई।
तोड़ी बकरी की गर्दन फिर, बड़े स्वाद से खाई।
अब जो भी पशु मिलता उसको, उसे मार खा जाता।
जंगल में अब प्रजातंत्र का, वह राजा कहलाता।
प्रजातंत्र का मतलब भी वह ,दुनिया को समझाता।
इसी तंत्र में जिसका जो भी , मन हो वह कर पाता।।
एक कहानी बड़ी पुरानी, कहती रहती नानी।
शेर और बकरी पीते थे, एक घाट पर पानी।
कभी शेर ने बकरी को, न घूरा न गुर्राया।
बकरी ने जब भी जी चाहा, उससे हाथ मिलाया।
शेर भाई बकरी दीदी के, जब तब घर हो आते।
बकरी के बच्चे मामा को, गुड़ की चाय पिलाते।
बकरी भी भाई के घर पर, बड़ी शान से जाती।
कभी मुगौड़े भजिए लड्डू, रसगुल्ले खा आती।
किंतु अचानक ही जंगल में, प्रजातंत्र घुस आया।
और प्रजा को मिली शक्तियों, से अवगत करवाया।
ऊंच-नीच होता क्या होता, छोटा और बड़ा क्या।
जाति धर्म वर्गों में होता, कलह और झगड़ा क्या।
निर्धन और धनी लोगों में, बड़ा फासला होता।
एक रहा करता महलों में, एक सड़क पर सोता।
शेर सिंह को जैसे ही यह, बात समझ में आई।
तोड़ी बकरी की गर्दन फिर, बड़े स्वाद से खाई।
अब जो भी पशु मिलता उसको, उसे मार खा जाता।
जंगल में अब प्रजातंत्र का, वह राजा कहलाता।
प्रजातंत्र का मतलब भी वह ,दुनिया को समझाता।
इसी तंत्र में जिसका जो भी , मन हो वह कर पाता।।
रविवार, 22 सितंबर 2013
शनिवार, 21 सितंबर 2013
A Bal Geet
शुक्रवार, 20 सितंबर 2013
सूरज भैया
अम्मा बोली सूरज भैया जल्दी से उठ जाओ,
धरती के सब लोग सो रहे जाकर उन्हें उठाओ।
मुर्गे थककर हार गये हैं कब से चिल्ला चिल्ला,
निकल घोंसलों से गौरैयां मचा रहीं हैं हल्ला,
तारों ने मुँह फेर लिया है तुम मुंह धोकर जाओ,
धरती के सब लोग सो रहे जाकर उन्हें उठाओ।
पूरब के पर्वत की चाहत तुम्हें गोद में ले लें,
सागर की लहरों की इच्छा साथ तुम्हारे खेलें,
शीतल पवन कर रहा कत्थक धूप गीत तुम गाओ,
धरती के सब लोग सो रहे जाकर उन्हें उठाओ।
सूरज मुखी कह रहा "भैया अब जल्दी से आएं,
देख आपका सुंदर मुखड़ा हम भी तो खिल जायें,
जाओ बेटे जल्दी से जग के दुख दर्द मिटाओ,
धरती के सब लोग सो रहे जाकर उन्हें उठाओ।
नौ दो ग्यारह हुआ अंधेरा कब से डरकर भागा,
तुमसे भय खाकर ही उसने राज सिंहासन त्यागा,
समर क्षेत्र में जाकर दिन पर अपना रंग जमाओ,
धरती के सब लोग सो रहे जाकर उन्हें उठाओ।
अंधियारे से डरना कैसा,क्यों उससे घबराना?
हुआ उजाला तो निश्चित ही, है उसका हट जाना,
सोलह घोड़ों के रथ चढ़कर, निर्भय हो कर जाओ,
धरती के सब लोग सो रहे जाकर उन्हें उठाओ।
अम्मा बोली सूरज भैया जल्दी से उठ जाओ,
धरती के सब लोग सो रहे जाकर उन्हें उठाओ।
मुर्गे थककर हार गये हैं कब से चिल्ला चिल्ला,
निकल घोंसलों से गौरैयां मचा रहीं हैं हल्ला,
तारों ने मुँह फेर लिया है तुम मुंह धोकर जाओ,
धरती के सब लोग सो रहे जाकर उन्हें उठाओ।
पूरब के पर्वत की चाहत तुम्हें गोद में ले लें,
सागर की लहरों की इच्छा साथ तुम्हारे खेलें,
शीतल पवन कर रहा कत्थक धूप गीत तुम गाओ,
धरती के सब लोग सो रहे जाकर उन्हें उठाओ।
सूरज मुखी कह रहा "भैया अब जल्दी से आएं,
देख आपका सुंदर मुखड़ा हम भी तो खिल जायें,
जाओ बेटे जल्दी से जग के दुख दर्द मिटाओ,
धरती के सब लोग सो रहे जाकर उन्हें उठाओ।
नौ दो ग्यारह हुआ अंधेरा कब से डरकर भागा,
तुमसे भय खाकर ही उसने राज सिंहासन त्यागा,
समर क्षेत्र में जाकर दिन पर अपना रंग जमाओ,
धरती के सब लोग सो रहे जाकर उन्हें उठाओ।
अंधियारे से डरना कैसा,क्यों उससे घबराना?
हुआ उजाला तो निश्चित ही, है उसका हट जाना,
सोलह घोड़ों के रथ चढ़कर, निर्भय हो कर जाओ,
धरती के सब लोग सो रहे जाकर उन्हें उठाओ।
दूध गरम
बैठा लाला भारी भरकम,
चिल्लाता पीलो दूध गरम|
बैठा लाला भारी भरकम,
चिल्लाता पीलो दूध गरम|
एक सड़क किनारे पट्टी में,
है रखा कड़ाहा भट्टी में|
भर भर गिलास पिलवाता है,
वह केवल पाँच रुपट्टी में|
देता आदर सबको समान,
थोड़ा ज्यादा न थोड़ा कम|
चिल्लाता पीलो दूध गरम|
जो युवक युवतियाँ आते हैं,
लगते कतार में जाते हैं||
दादा दादी नाना नानी,
नाती पोतों को लाते हैं|
सब सुड़ सुड़ दूध सुड़कते हैं,
ना करें यहां पर लाज शरम|
चिल्लाता पीलो दूध गरम|
यह दूध बड़ा खुशबू वाला,
मीठा मीठा, केसर डाला|
मन जिसका ललचा जाता है,
पीने को होता मतवाला|
फहराता उसके चेहरे पर,
पल भर को खुशियों का परचम|
चिल्लाता पीलो दूध गरम|
नेता अफसर भी आ जाते,
पीकर यह दूध अघा जाते|
यह दूध बहुत है गुणकारी,
पीने वालों को समझाते|
जो भी इस रस्ते से निकला,
पग उसके जाते हैं थम,थम|
चिल्लाता पीलो दूध गरम|
भर भर गिलास पिलवाता है,
वह केवल पाँच रुपट्टी में|
देता आदर सबको समान,
थोड़ा ज्यादा न थोड़ा कम|
चिल्लाता पीलो दूध गरम|
जो युवक युवतियाँ आते हैं,
लगते कतार में जाते हैं||
दादा दादी नाना नानी,
नाती पोतों को लाते हैं|
सब सुड़ सुड़ दूध सुड़कते हैं,
ना करें यहां पर लाज शरम|
चिल्लाता पीलो दूध गरम|
यह दूध बड़ा खुशबू वाला,
मीठा मीठा, केसर डाला|
मन जिसका ललचा जाता है,
पीने को होता मतवाला|
फहराता उसके चेहरे पर,
पल भर को खुशियों का परचम|
चिल्लाता पीलो दूध गरम|
नेता अफसर भी आ जाते,
पीकर यह दूध अघा जाते|
यह दूध बहुत है गुणकारी,
पीने वालों को समझाते|
जो भी इस रस्ते से निकला,
पग उसके जाते हैं थम,थम|
चिल्लाता पीलो दूध गरम|
गुरुवार, 19 सितंबर 2013
मेरी बाल कविता
भीगी बिल्ली
मक्खी पर बैठा था चूहा,
चूहे पर थी बिल्ली|
उड़ते उड़ते पहुँच गये वे,
पल भर में ही दिल्ली|
दिल्ली वालों ने तीनों की,
खूब उड़ाई खिल्ली|
तीनों गुस्से से चिल्लाये,
दिल्ली बड़ी निठल्ली|
दिल्ली को हम कर देंगे,
दो पल में पिल्ली पिल्ली|
गिरा गिरा कर विकिट धड़ा धड़,
उड़वा देंगे गिल्ली|
यह सुनकर दिल्ली वालों के,
नीचे धरती हिल्ली|
डर के मारे दिल्ली वाले,
बन गये भीगी बिल्ली|
मक्खी पर बैठा था चूहा,
चूहे पर थी बिल्ली|
उड़ते उड़ते पहुँच गये वे,
पल भर में ही दिल्ली|
दिल्ली वालों ने तीनों की,
खूब उड़ाई खिल्ली|
तीनों गुस्से से चिल्लाये,
दिल्ली बड़ी निठल्ली|
दिल्ली को हम कर देंगे,
दो पल में पिल्ली पिल्ली|
गिरा गिरा कर विकिट धड़ा धड़,
उड़वा देंगे गिल्ली|
यह सुनकर दिल्ली वालों के,
नीचे धरती हिल्ली|
डर के मारे दिल्ली वाले,
बन गये भीगी बिल्ली|
बाबू गधाराम
एक गधे को मिली नौकरी,
दफ्तर के बाबू की|
सबसे अधिक कमाऊ थी जो,
वह कुर्सी काबू की|
काम कराने के बद्ले वे,
जमकर रिश्वत लेते|
जितना खाते उसमें आधा,
वे अफसर को देते|
अफसर भालूराम मजे से,
सभी काम कर देता|
बाबू गधाराम था उसका,
सबसे बड़ा चहेता|
रोज मजे से भालूदादा,
इंग्लिश दारू पीते|
और बुलाकर गधेराम को,
देशी पकड़ा देते|
देशी पीकर गधेराम का,
गला हो गया भोंपू|
इस कारण अब करते रहते,
हर दम ढेंचू ढेंचू|
एक गधे को मिली नौकरी,
दफ्तर के बाबू की|
सबसे अधिक कमाऊ थी जो,
वह कुर्सी काबू की|
काम कराने के बद्ले वे,
जमकर रिश्वत लेते|
जितना खाते उसमें आधा,
वे अफसर को देते|
अफसर भालूराम मजे से,
सभी काम कर देता|
बाबू गधाराम था उसका,
सबसे बड़ा चहेता|
रोज मजे से भालूदादा,
इंग्लिश दारू पीते|
और बुलाकर गधेराम को,
देशी पकड़ा देते|
देशी पीकर गधेराम का,
गला हो गया भोंपू|
इस कारण अब करते रहते,
हर दम ढेंचू ढेंचू|
चूहे और हाथी
दो चूहों को बीच सड़क पर,
मिल गये हाथी दादा।
चले आ रहे थे जैसे हों,
जंगल के शाहजादा|
उसको देख एक चूहे ने,
दूजे को उकसाया|
दो दो हाथ करें हाथी से,
अच्छा अवसर आया|
कई दिनों से हाथों की भी,
कसरत न हो पाई।
क्यों न हम हाथी दादा की,
कर दें आज धुनाई।
बोला तभी दूसरा चूहा,
उचित नहीं यह भाई|
एक अकेले की दो मिलकर,
जमकर करें पिटाई\
दुनियाँ वालों को भी यह सब,
होगा नहीं गवारा,
लोग कहेंगे दो सेठों ने,
एक गरीब को मारा।
12, शिवम सुंदरम नगर, छिंदवाड़ा, म.प्र.
दो चूहों को बीच सड़क पर,
मिल गये हाथी दादा।
चले आ रहे थे जैसे हों,
जंगल के शाहजादा|
उसको देख एक चूहे ने,
दूजे को उकसाया|
दो दो हाथ करें हाथी से,
अच्छा अवसर आया|
कई दिनों से हाथों की भी,
कसरत न हो पाई।
क्यों न हम हाथी दादा की,
कर दें आज धुनाई।
बोला तभी दूसरा चूहा,
उचित नहीं यह भाई|
एक अकेले की दो मिलकर,
जमकर करें पिटाई\
दुनियाँ वालों को भी यह सब,
होगा नहीं गवारा,
लोग कहेंगे दो सेठों ने,
एक गरीब को मारा।
12, शिवम सुंदरम नगर, छिंदवाड़ा, म.प्र.
बुधवार, 11 सितंबर 2013
मेरी बाल कविता
मेरी बाल कविता
कलयुग के मुर्गे
रोज चार पर मुर्गों की अब,
नींद नहीं खुल पाती बापू|
इस कारण से ही तो अब वे,
गाते नहीं प्रभाती बापू|
कुछ सालों पहिले तो मुर्गे,
सुबह बाँग हर दिन देते थे|
उठो उठो हो गया सबेरा,
संदेशा सबको देते थे|
किंतु बात अब यह मुर्गों को,
बिल्कुल नहीं सुहाती बापू|
इस कारण से ही तो अब वे,
गाते नहीं प्रभाती बापू|
हो सकता है अब ये मुर्गे,
देर रात तक जाग रहे हों,
कम्पूटर टी वी के पीछे,
पागल होकर भाग रहे हों|
लगता है कि मुर्गी गाकर,
फिल्मी गीत रिझाती बापू|
इस कारण से ही तो अब वे,
गाते नहीं प्रभाती बापू|
नई सभ्यता पश्चिमवाली,
सबके सिर चढ़ बोल रही है|
सोओ देर से उठो देर से,
बात लहू में घोल रही है|
मजे मजे की यही जिंदगी,
अब मुर्गों को भाती बापू|
इस कारण से ही तो अब वे,
गाते नहीं प्रभाती बापू|
पर पश्चिम की यही नकल तो,
हमको लगती है दुखदाई|
, |भूले अपने संस्कार क्यों,
हमको अक्ल जरा न आई|
यही बात कोयल कौये से,
हर दिन सुबह बताती बापू|
इस कारण से ही तो अब वे,
गाते नहीं प्रभाती बापू|
कलयुग के मुर्गे
रोज चार पर मुर्गों की अब,
नींद नहीं खुल पाती बापू|
इस कारण से ही तो अब वे,
गाते नहीं प्रभाती बापू|
कुछ सालों पहिले तो मुर्गे,
सुबह बाँग हर दिन देते थे|
उठो उठो हो गया सबेरा,
संदेशा सबको देते थे|
किंतु बात अब यह मुर्गों को,
बिल्कुल नहीं सुहाती बापू|
इस कारण से ही तो अब वे,
गाते नहीं प्रभाती बापू|
हो सकता है अब ये मुर्गे,
देर रात तक जाग रहे हों,
कम्पूटर टी वी के पीछे,
पागल होकर भाग रहे हों|
लगता है कि मुर्गी गाकर,
फिल्मी गीत रिझाती बापू|
इस कारण से ही तो अब वे,
गाते नहीं प्रभाती बापू|
नई सभ्यता पश्चिमवाली,
सबके सिर चढ़ बोल रही है|
सोओ देर से उठो देर से,
बात लहू में घोल रही है|
मजे मजे की यही जिंदगी,
अब मुर्गों को भाती बापू|
इस कारण से ही तो अब वे,
गाते नहीं प्रभाती बापू|
पर पश्चिम की यही नकल तो,
हमको लगती है दुखदाई|
, |भूले अपने संस्कार क्यों,
हमको अक्ल जरा न आई|
यही बात कोयल कौये से,
हर दिन सुबह बताती बापू|
इस कारण से ही तो अब वे,
गाते नहीं प्रभाती बापू|
मंगलवार, 10 सितंबर 2013
A Bal Geet
हाथी की कविता
बड़े सुबह से हाथी दादा,
लगे शेर को फोन लगाने|
एक लिखी है अच्छी कविता,
केवल इतनी बात बताने|
हाथी की कविता को सुनकर,
शेर भाई हो गये दीवाने|
एक एक पंक्ति को गाकर,
सब मित्रों को लगे सुनाने|
इतनी अच्छी कविता सुनकर ,
मित्र हुये पागल् दीवाने|
पकड़ लाये हाथी को सब मिल,
बीच सड़क पर लगे नचाने|
बड़े सुबह से हाथी दादा,
लगे शेर को फोन लगाने|
एक लिखी है अच्छी कविता,
केवल इतनी बात बताने|
हाथी की कविता को सुनकर,
शेर भाई हो गये दीवाने|
एक एक पंक्ति को गाकर,
सब मित्रों को लगे सुनाने|
इतनी अच्छी कविता सुनकर ,
मित्र हुये पागल् दीवाने|
पकड़ लाये हाथी को सब मिल,
बीच सड़क पर लगे नचाने|
A Bal Geet
हाथी की कविता
बड़े सुबह से हाथी दादा,
लगे शेर को फोन लगाने|
एक लिखी है अच्छी कविता,
केवल इतनी बात बताने|
हाथी की कविता को सुनकर,
शेर भाई हो गये दीवाने|
एक एक पंक्ति को गाकर,
सब मित्रों को लगे सुनाने|
इतनी अच्छी कविता सुनकर ,
मित्र हुये पागल् दीवाने|
पकड़ लाये हाथी को सब मिल,
बीच सड़क पर लगे नचाने|
बड़े सुबह से हाथी दादा,
लगे शेर को फोन लगाने|
एक लिखी है अच्छी कविता,
केवल इतनी बात बताने|
हाथी की कविता को सुनकर,
शेर भाई हो गये दीवाने|
एक एक पंक्ति को गाकर,
सब मित्रों को लगे सुनाने|
इतनी अच्छी कविता सुनकर ,
मित्र हुये पागल् दीवाने|
पकड़ लाये हाथी को सब मिल,
बीच सड़क पर लगे नचाने|
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