शनिवार, 29 मार्च 2014

बाल  कविता 
            
               दादीजी के बोल
    मिश्री जैसे मीठे मीठे,दादीजी के बोल पिताजी|


    परियों वाली कथा सुनाती,
    किस्से बड़े पुराने|
    रहें सुरक्षा वाली छतरी,
    हम बच्चों पर ताने|
    बच्चे लड़ते आपस में तो,
    न्यायधीश बन जातीं|
    अपराधी को वहीं फटाफट,
    कन्बुच्ची लगवातीं|
    कितनी प्यारी प्यारी बातें,
    बातें हैं अनमोल पिताजी|

   यह कमरा है परदादा का,
   उसमें थीं परदादी|
   इस आंगन में रची गई थी,
   बड़ी बुआ की शादी|
   अब तक बैठीं रखे सहेजे,
   पाई धेला आना|
   पीतल का हंडा बतलातीं,
   दो सौ साल पुराना|
   दादी हैं इतिहास हमारा ,
   दादी हैं भूगोल पिताजी|

    रोज शाम को दादाजी से,
    चिल्लर लेकर जातीं|
    दिखे जहां कम‌जोर भिखारी,
    उन्हें बांटकर आतीं|
    चिड़ियों को दाना चुगवातीं,
    पिलवातीं हैं पानी|
    पर सेवा में दया धर्म में,
    बनी अहिल्या रानी|
    चुपके चुपके मदद सभी की,
    नहीं पीटतीं ढोल पिताजी|

     अब भी काम वालियां हर दिन,
     सांझ ढले आ जातीं|
     चार चार रोटी सब्जी का ,
     अगरासन ले जातीं|
     दिन ऊगे से बड़े बरेदी,
     कक्का घर आ जाते|
     कबरी गैया बित्तो भैंसी,
     का नित दूध लगाते|
     म‌क्खन दही मलाई मट्ठा,
     लिया कभी ना मोल पिताजी|

      सप्त ऋषि ध्रुवतारा दिखते,
      उत्तर में बतलातीं|
      मंगल लाल लाल दिखता है,
      शुक्र कहाँ?समझातीं|
      तीन तरैयों वाली डोली,
      को कहतीं हैं हिरणी|
      यह भी उन्हें पता है नभ में,
      कहाँ विचरता भरणी|
      लगता जैसे सारी विद्या,
     आती उन्हें खगोल पिताजी|

 

               बाल  कविता 
            
               दादीजी के बोल
    मिश्री जैसे मीठे मीठे,दादीजी के बोल पिताजी|


    परियों वाली कथा सुनाती,
    किस्से बड़े पुराने|
    रहें सुरक्षा वाली छतरी,
    हम बच्चों पर ताने|
    बच्चे लड़ते आपस में तो,
    न्यायधीश बन जातीं|
    अपराधी को वहीं फटाफट,
    कन्बुच्ची लगवातीं|
    कितनी प्यारी प्यारी बातें,
    बातें हैं अनमोल पिताजी|

   यह कमरा है परदादा का,
   उसमें थीं परदादी|
   इस आंगन में रची गई थी,
   बड़ी बुआ की शादी|
   अब तक बैठीं रखे सहेजे,
   पाई धेला आना|
   पीतल का हंडा बतलातीं,
   दो सौ साल पुराना|
   दादी हैं इतिहास हमारा ,
   दादी हैं भूगोल पिताजी|

    रोज शाम को दादाजी से,
    चिल्लर लेकर जातीं|
    दिखे जहां कम‌जोर भिखारी,
    उन्हें बांटकर आतीं|
    चिड़ियों को दाना चुगवातीं,
    पिलवातीं हैं पानी|
    पर सेवा में दया धर्म में,
    बनी अहिल्या रानी|
    चुपके चुपके मदद सभी की,
    नहीं पीटतीं ढोल पिताजी|

     अब भी काम वालियां हर दिन,
     सांझ ढले आ जातीं|
     चार चार रोटी सब्जी का ,
     अगरासन ले जातीं|
     दिन ऊगे से बड़े बरेदी,
     कक्का घर आ जाते|
     कबरी गैया बित्तो भैंसी,
     का नित दूध लगाते|
     म‌क्खन दही मलाई मट्ठा,
     लिया कभी ना मोल पिताजी|

      सप्त ऋषि ध्रुवतारा दिखते,
      उत्तर में बतलातीं|
      मंगल लाल लाल दिखता है,
      शुक्र कहाँ?समझातीं|
      तीन तरैयों वाली डोली,
      को कहतीं हैं हिरणी|
      यह भी उन्हें पता है नभ में,
      कहाँ विचरता भरणी|
      लगता जैसे सारी विद्या,
     आती उन्हें खगोल पिताजी|

 


शुक्रवार, 28 मार्च 2014

फनी कविता : हाथी बड़ा भुखेला...
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हाथी बड़ा भुखेला अम्मा,
हाथी बड़ा भुखेला।
खड़ा रहा मैं ठगा ठगा-सा,
खाएं अस्सी केला अम्मा,
खाएं अस्सी केला।

सूंड़ बढ़ाकर रोटी छीनी,
दाल‌ फुरक कर खाई।
चाची ने जब पुड़ी परोसी,
लपकी और उठाई।
कितना खाता पता नहीं है,
पेट बड़ा-सा थैला अम्मा,
पेट बड़ा-सा थैला।

चाल निराली थल्लर-थल्लर,
चलता है मतवाला।
राजा जैसॆ डग्गम-डग्गम,
जैसे मोटा लाला।
पकड़ सूंड़ से नरियल फोड़ा,
पूरा निकला भेला अम्मा,
पूरा निकला भेला।

पैर बहुत मोटे हैं उसके,
ज्यों बरगद के खंभे।
मुंह के अगल-बगल में चिपके,
दांत बहुत हैं लंबे।
रहता राजकुमारों जैसा,
पास नहीं है धेला अम्मा,
पास नहीं है धेला।

पत्ते खाता डाल गिराता,
ऊधम करता भारी।
लगता थानेदार सरीखा,
बहुत बड़ा अधिकारी।
पेड़ उठाकर इस कोने से,
उस कोने तक ठेला अम्मा,
उस कोने तक ठेला।
हाथी भैया कहां चले..
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थैले जैसा पेट‌ तुम्हारा, हाथी भैया कहां चले।
ज‍ंगल से तुम कब आए हो, बहुत दिनों के बाद मिले।

पेड़ यहां अब नहीं बचे हैं, डालें कहां हिलाओगे।
पत्तों का भी कहां ठिकाना, अब बोलो क्या खाओगे।

नहीं नलों में पानी आता, नदिया नाले हैं सूखे।
रहना होगा हाथी भैया, तुम्हें यहां प्यासे भूखे।

कई शिकारी सर्कस वाले, पीछे पड़े तुम्हारे हैं।
पता नहीं किस पथ के नीचे दबे हुए अंगारे हैं।

अगर तुम्हें रहना है सुख से, जंगल में वापस जाओ।
ले खड़ताल मंजीरा भैया, राम नाम के गुण गाओ।
बाल कविता : बाबूजी का दिवाला
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आठ-आठ सौ की दो साड़ी,
तेरह सौ का चश्मा काला।

मां बोली कुल कितना होगा,
है क्या तुमने जोड़ निकाला?

बेटा बोला, जोड़ ठीक है,
पर मां तुमने डाका डाला।

इसी तरह से तो निकला है,
बाबूजी का हाय दिवाला।
बाल कविता : बरफ के गोले
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आई है अब गरमी भोले,
खाएं चलो बरफ के गोले।
छुपन छुपाई खेल खेलकर,
बदन पसीने से लथपथ है।
दौड़ दौड़कर हार चुके हैं,
बहुत हो चुकी अब गपशप है।
बंद अकल के जो पट खोले
खाएं चलो बरफ के गोले।
मां ने नीबू के रस वाला,
दिन में शरबत खूब पिलाया।
लाल लाल तरबूज काटकर,
मीठा मीठा मुझे खिलाया।
बंद द्वार मुश्किल से खोले।
खाएं चलो बरफ के गोले।
तीन बरफ के ठंडे गोले,
अभी अभी मुन्नू ने खाए।
रंग बिरंगे सजे सजीले,
दो गन्नूजी घर ले आए।
'एक मुझे दो' बापू बोले।
खाएं चलो बरफ के गोले।
पर ज्यादा गोले खाना भी,
होता बहुत हानिकारक है।
बीमारी का डर हॊता है।
नहीं जरा भी इसमें शक है।
बार-बार फिर भी मन डोले।
खाएं चलो बरफ के गोले।